चल फिर मिलते है



चल फिर मिलते है आज उस बाग़ में जैसे पहले मिलते थे मेज़ों पर लगी धूल को साफ़ करके खो जाते हैं||

दमकती घास के गुच्छे पे टिकी तेरी आँखें | तुझे अपलक निहारती मेरी पलके.| मुह ही मुह में हो जाने वाली वो धीमी बाते जैसे मेरे लिए ही बनी हो | तेरे चश्मे को ठीक करके मेरे हाथों में बना वो इंद्रदानुष | मेरे हाथों को छूने से तेरी हथेलियों में बना वो पसीने का पेड़ |

कहीं जाने की जल्दी , कुछ पाने की वहशियत, खो देने का तो ज़ेहन भी नहीं| मेरी किताब और तेरा पर्स पड़ा रह जाये वहीँ मेज़ पर| दरमियान कोई खलल हो | शरबती शाम हो नारंगी सूरज हो, रात की सांवली सी किनार हो|


चल फिर मिलते है आज उस बाग़ में जैसे पहले मिलते थे, मेज़ों पर लगी धूल को साफ़ करके खो जाते हैं||

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