कुछ दिन जब हम नहीं बोलते,
कुछ दिन जब हम नहीं बोलते , कुछ दिन की चुप्पी होती हैं . फिर बोलने लगती हे हर एक चीज तुम्हारी तरह . जैसे सुबह खिड़की के पर्दे से झांकती हुई रौशनी ले लेती हैं तुम्हारी शक्ल . कमरे की वो दिवार जिसपर लाइट लगी हैं बदल के हो जाती हैं तेरे चेहरे जैसी . आईने के सामने से गुजरता हूँ तो कंधे के बगल में तेरी परछाई नज़र आती हैं . कुछ दिन तक नहीं बोलना ठीक था पर आओ फिर बाते करते हैं और सब चीज़ो को उनकी शक्ल वापस कर देते हैं जो तुम्हारी हो गयीं हैं