कैसे कहता
प्रेम में डूब के कैसे कहता की, कुछ द्वेष भी पलने लगा हूँ अंदर. कैसे कहता की तुम बदल गए हो, या बदल के कैसे हो गए हो. कैसे कहता कि तुम्हारी कई बाते अच्छी नहीं थी, झुंझलाहट भरी थी वो चुप्पी तुम्हारी, खासकर तब, जब तुम्हारे साथ की अपेक्षा थी कौन निर्धारण करेगा, की मेरा और तुम्हारा कर्म हो कैसा, कोई तो तय नहीं कर सकता समय सीमा कि कौन किस-से कब तक जुड़े रहे या छुड़ा के जा सकता हैं दामन भी. प्रेम में डूब के कैसे उस असंतोष को जताता, की तुम सहज ही रहे इस बिखराओ पर, और मेरा मन वेदना से भरा था. इसलिए किसी भी लहज़े में नहीं कहा की कुछ द्वेष भी पलने लगा हूँ अंदर. कह भी नहीं पता शायद, हृदय में उठते दुःख के लिए बस कुछ कविताये ही लिख सका... आज बस ऐसे ही बात निकली तो कह दिया, बातों बातों में पता चला... तुमसे भी कुछ आज पता चला तुम्हे भी कितने द्वेष हैं, तुम्हे भी मेरे बदलने का दुःख हैं,...