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Magic.....

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I sat and thought ‘what is that we are running after?’ What is it? Some sort of zone of eternal happiness? Or a state of mind that stays at peace all the time? To be honest I never understand what it is but I can’t run no more… When I stopped Magic happened … there is a thing about magic if you believe it’s real, it’s real…. It is everywhere around us… but one can experience and feel it clearly only when the mind is less cluttered. You ask for anything, and it just happens if you believe in magic. You ask for rain? You got it. Rainbow? Booyah! You got rainbows. You got literally anything you wish for. Everything smelt like peace and freedom. Time is not even a dimension anymore. You could be anyone or anything.  I now just look at the sky to feel the magic…. There is just so much that I can say about the colors in the sky…..I get jolts and ripple sprouts. The ripples form ideas and hence, thoughts. Thoughts turn into actions that affect everything around me.

कुछ दिन जब हम नहीं बोलते,

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                                          कुछ दिन जब हम नहीं बोलते , कुछ दिन की चुप्पी होती हैं . फिर बोलने लगती हे हर एक चीज तुम्हारी तरह . जैसे सुबह खिड़की के पर्दे से झांकती हुई रौशनी ले लेती हैं तुम्हारी शक्ल . कमरे की वो दिवार जिसपर लाइट लगी हैं बदल के हो जाती हैं तेरे चेहरे जैसी . आईने के सामने से गुजरता हूँ तो कंधे के बगल में तेरी परछाई नज़र आती हैं .  कुछ दिन तक नहीं बोलना ठीक था पर आओ फिर बाते करते हैं और सब चीज़ो को उनकी शक्ल वापस कर देते हैं जो तुम्हारी हो गयीं हैं

सम्भावनाये

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में निकल रहा हूँ संभावनाओं की तलाश में आज तो | लेकिन छोड़ के जा रहा हूँ एक बिंदु तेरे पास || बिंदु जिसमे संभावनाएं हैं लकीर बनने की | लकीर जिसके साथ हम तय कर सकते हैं सफर क्षितिज तक का  सम्भावनाये तो उसके पार की भी हैं  वैसे || रखले उस बिंदु को सम्हाल कर फ़िलहाल | सिरहाने के नीचे, या अपनी हथेलियों में तील बनाकर || कल फिर जब संभावनाएं अनुकूल होगी हम अपनी लकीर तलाशेंगे | और तय करेंगे सफर क्षितिज तक का  या उसके भी पार शायद ||

चल फिर मिलते है

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चल फिर मिलते है आज उस बाग़ में जैसे पहले मिलते थे मेज़ों पर लगी धूल को साफ़ करके खो जाते हैं || दमकती घास के गुच्छे पे टिकी तेरी आँखें | तुझे अपलक निहारती मेरी पलके .| मुह ही मुह में हो जाने वाली वो धीमी बाते जैसे मेरे लिए ही बनी हो | तेरे चश्मे को ठीक करके मेरे हाथों में बना वो इंद्रदानुष | मेरे हाथों को छूने से तेरी हथेलियों में बना वो पसीने का पेड़ | न कहीं जाने की जल्दी , न कुछ पाने की वहशियत , खो देने का तो ज़ेहन भी नहीं | मेरी किताब और तेरा पर्स पड़ा रह जाये वहीँ मेज़ पर | दरमियान कोई खलल न हो | शरबती शाम हो नारंगी सूरज हो , रात की सांवली सी किनार हो | चल फिर मिलते है आज उस बाग़ में जैसे पहले मिलते थे , मेज़ों पर लगी धूल को साफ़ करके खो जाते हैं ||